...मेरे उम्मीदों का चमन खाक हुआ। आशियाना सजाया था, राख हुआ।... तमाम उठापटक के बाद भी पाकिस्तान की अवाम ने जो उम्मीदेंं संजोकर रखी थीं, वह बेनजीर की हत्या के साथ ही खत्म हो गइंर्। लोकतंत्र के विरोधी धमकियां तो दे रहे थे पर वे ऐसा कदम उठाने का दुस्साहस करेंगे, ऐसी आशंका नहीं थी। हालांकि यह बिलकुल अप्रत्याशित नहीं था। सत्ता से चिपकेजनरल मुशर्रफ से समझौते की चर्चाआें के बीच जब बेनजीर पाकिस्तान वापस लौटी थीं, उस समय भी उनका ऐसा ही धमाकेदार स्वागत हुआ था। उस खूनी स्वागत में कइयों की जान गई पर खुदा के शुक्र से बेनजीर बच गई थी और उन्होंने अपना लोकतांत्रिक अभियान जारी रखा था। पर इस बार आतंकियों का निशाना खाली नहीं गया। जाहिर है तानाशाही से मुि त की आस लगाए पाकिस्तान की जनता के लिए यह भारी झटका है। योंकि बेनजीर भुट्टो पाकिस्तान की जनता के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक मजबूत प्रतीक थी और इसलिए उनकी हत्या लोकतंत्र की हत्या है। सवाल उठता है कि अब या होगा? या पाकिस्तान में लोकतंत्र लौटेगा? अगर लौटेगा तो कैसे और किसके लिए? या यह संयोग ही है कि बेनजीर के पिता भी लोकतंत्र के नाम पर फांसी चढ़ चुके हैं? या पाकिस्तान में लोकतंत्र की यही नियति है? जवाब के लिए पाकिस्तान के हालात का जायजा लेना पड़ेगा।
जनरल परवेज मुशर्रफ पहले तो वर्दी को दूसरी चमड़ी बता रहे थे। जब अतंरराष्ट्रीय दबाव में उन्हें लोकतंत्र लागू करने के लिए कदम उठाने पर मजबूर किया जाने लगा तो उन्होंने जबरन राष्ट्रपति पद हथिया लिया और वर्दी उतारने की घोषणा कर दी। दूरगामी फायदों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने सेना की कमान कियानी को थमा दी। चुनाव में नवाज शरीफ और बेनजीर भुट्टो दोनो ही उन्हें आड़े हाथों ले रहे थे। दोनो के ही नामांकन भी खारिज कर दिए गए थे। जाहिर है कि मुशर्रफ लोकतंत्र की कमान किसी भी उस व्यि त के हाथ में नहीं जाने देना चाहते थे जिसका कोई कद हो। नवाज और बेनजीर दोनो ही चुनाव के बाद मुशर्रफ को दंडित करने की बात करने लगे थे। दोनों नेताआें की सभाआें में जुट रही भीड़ उनके जन समर्थन को साबित करने के लिए पर्याप्त थी। उधर मुशर्रफ का विरोध बढ़ ही रहा था। मुशर्रफ के मुकाबले के लिए दोनों नेताआें ने हाथ भी मिला लिए थे और पाकिस्तान में इन दोनों से बड़ी जम्हूरियत की कोई ताकत नहीं है। इन दोनों का साथ आना मुशर्रफ के लिए खतरेकी घंटी थी। इसीलिए पहले नवाज शरीफ पर जब हमला हुआ और वह बाल बाल बच गए, फिर कुछ ही देर बाद बेनजीर पर हमला हुआ तब लोगों की उंगलियां सीधे मुशर्रफ पर उठ गईं। अगर नवाज भी मारे जाते तो पाकिस्तान में लोकतंत्र के लिए आवाज उठानेवाला कोई दमदार शख्स कई सालों तक नजर नहीं आता। पंजाब के लुधियाना में मुसलमानों ने तो बेनजीर की हत्या की खबर आते ही मुशर्रफ को दोषी ठहरा दिया और पुतला फूंकने की घोषणा कर दी। अब मुशर्रफ अपने दामन पर लगे इस दाग को धोने में शायद कभी सफल नहीं हो पाएं। घटना भी उन्हीं केशहर रावलपिंडी में हुई। सुरक्षा इंतजाम का जिम्मा भी उन्हीं की सरकार के उपर था। पाकिस्तान में लोकतंत्र से सबसे ज्यादा डर भी उन्हीं को दिख रहा था। इसलिए दुनिया भर के सवालों का जवाब भी उन्हीं को देना होगा।
दुनिया के सवालों से तो बाद में निपटना होगा। पहले पाकिस्तान की जनता ही जवाब मांगेगी। अभी की स्थिति में वहां गृहयुद्ध के हालात हो जाएंगे। बेनजीर की हत्या की खबर फैलते ही जिस तरह से लोग सड़कोंं पर उतरने लगे और आगजनी की खबरें सामने आ रही हैं। इससे भी संकेत साफ हैं। इस हालात का सबसे ज्यादा फायदा आतंकी संगठन उठाएंगे। पाकिस्तान में अराजकता की स्थिति उनके लिए सर्वाधिक मुफीद होगी। वे अपना दायरा अफगानिस्तान से सटे कबायली इलाकों से बढ़ाकर मध्य पाकिस्तान तक फैलाने की कोशिश करेंगे और यह पाकिस्तान की जम्हूरियत के लिए खतरनाक साबित होगी ही मुशर्रफ के लिए खतरनाक स्थिति होगी। योंकि एक तरफ उन्हंे नापसंद करने वाले आतंकी संगठन अपनी ताकत बढ़ाकर उन्हें चुनौती देंगे। दूसरी तरफ आतंकियों से निपटने के नाम पर अमेरिका का हस्तक्षेप बढ़ेगा। अगर अलकायदा जैसे संगठन ने इस घटना को अंजाम दिया है तो फिर नवाज के बाद मुशर्रफ ही उसका अगला निशाना होंगे। पहले अमेरिकापरस्ती की नीति मुशर्रफ पर हमले का सबब बन चुकी है।
बेनजीर की ही तर्ज पर भारत में भी घटनाएं हो चुकी हैं। भारत के लोकप्रिय नेता राजीव गांधी भी चुनाव प्रचार के दौरान ऐसी ही ताकतों का निशाना बनकर जान गंवा चुके हैं। इसलिए भारत को भी सतर्क रहना होगा। योंकि कोई शासक बने सीधे तौर पर भारत-पाक के रिश्ते पर कोई खास असर नहीं होगा लेकिन जब पाकिस्तान में कट्टरपंथियोंं का वर्चस्व बढ़ेगा तो भारत में आतंकवाद को शह मिलेगी। पाकिस्तान के कट्टरपंथी वैसे भी बेनजीर और नवाज के भारत समर्थक बयानों पर कड़ी प्रतिक्रिया देते रहे हैं। दोनों देशों के बीच कारोबारी रिश्ते भी इस बीच ठीक ठाक हो गए थे। वाघा बार्डर और अटारी के जरिए आयात और निर्यात का सिलसिला बढ़ा था। चीन, ईरान और अफगानिस्तान का माल भी इसी रास्ते आने लगा था। ऐसी बड़ी घटना से इस रिश्ते को भी झटका लगेगा।
रही बात पाक में चुनाव प्रक्रिया की तो बेनजीर की मौत के बाद या इसे जारी रखा जाएगा ? यह सवाल है। इस घटना के बाद या बेनजीर के समर्थक और नवाज शरीफ अपनी आवाज जम्हूरियत के हक में पूरी ताकत से बुलंद कर पाएंगे। या इमरान खान जैसी शख्सियत इस स्थिति में कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभा पाएंगी। अगर चुनाव करा भी लिए गए तो उसके बाद बनी सरकार भय और आतंक के इस कोहरे से पाकिस्तान की जम्हूरियत को बाहर निकाल पाएगी। इन सवालोंं पर पाकिस्तान ही नहीं पूरी दुनिया के लोगों की निगाहें टिकी रहेंगी।