सोमवार, 31 दिसंबर 2007

नव वर्ष की बधाई


साल नया
संकल्प नया
सुबह
नयी
उम्मीद
नयी
सृजन
नया
विश्वास
नया
नए
साल में
सभी
जनो के
हो
जीवन में
उल्लास नया

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2007

पाक में लोकतंत्र की या यही नियति है



...मेरे उम्मीदों का चमन खाक हुआआशियाना सजाया था, राख हुआ।... तमाम उठापटक के बाद भी पाकिस्तान की अवाम ने जो उम्मीदेंं संजोकर रखी थीं, वह बेनजीर की हत्या के साथ ही खत्म हो गइंर्। लोकतंत्र के विरोधी धमकियां तो दे रहे थे पर वे ऐसा कदम उठाने का दुस्साहस करेंगे, ऐसी आशंका नहीं थी। हालांकि यह बिलकुल अप्रत्याशित नहीं था। सत्ता से चिपकेजनरल मुशर्रफ से समझौते की चर्चाआें के बीच जब बेनजीर पाकिस्तान वापस लौटी थीं, उस समय भी उनका ऐसा ही धमाकेदार स्वागत हुआ था। उस खूनी स्वागत में कइयों की जान गई पर खुदा के शुक्र से बेनजीर बच गई थी और उन्होंने अपना लोकतांत्रिक अभियान जारी रखा था। पर इस बार आतंकियों का निशाना खाली नहीं गया। जाहिर है तानाशाही से मुि त की आस लगाए पाकिस्तान की जनता के लिए यह भारी झटका है। योंकि बेनजीर भुट्टो पाकिस्तान की जनता के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक मजबूत प्रतीक थी और इसलिए उनकी हत्या लोकतंत्र की हत्या है। सवाल उठता है कि अब या होगा? या पाकिस्तान में लोकतंत्र लौटेगा? अगर लौटेगा तो कैसे और किसके लिए? या यह संयोग ही है कि बेनजीर के पिता भी लोकतंत्र के नाम पर फांसी चढ़ चुके हैं? या पाकिस्तान में लोकतंत्र की यही नियति है? जवाब के लिए पाकिस्तान के हालात का जायजा लेना पड़ेगा।
जनरल परवेज मुशर्रफ पहले तो वर्दी को दूसरी चमड़ी बता रहे थे। जब अतंरराष्ट्रीय दबाव में उन्हें लोकतंत्र लागू करने के लिए कदम उठाने पर मजबूर किया जाने लगा तो उन्होंने जबरन राष्ट्रपति पद हथिया लिया और वर्दी उतारने की घोषणा कर दी। दूरगामी फायदों को ध्यान में रखते हुए उन्होंने सेना की कमान कियानी को थमा दी। चुनाव में नवाज शरीफ और बेनजीर भुट्टो दोनो ही उन्हें आड़े हाथों ले रहे थे। दोनो के ही नामांकन भी खारिज कर दिए गए थे। जाहिर है कि मुशर्रफ लोकतंत्र की कमान किसी भी उस व्यि त के हाथ में नहीं जाने देना चाहते थे जिसका कोई कद हो। नवाज और बेनजीर दोनो ही चुनाव के बाद मुशर्रफ को दंडित करने की बात करने लगे थे। दोनों नेताआें की सभाआें में जुट रही भीड़ उनके जन समर्थन को साबित करने के लिए पर्याप्त थी। उधर मुशर्रफ का विरोध बढ़ ही रहा था। मुशर्रफ के मुकाबले के लिए दोनों नेताआें ने हाथ भी मिला लिए थे और पाकिस्तान में इन दोनों से बड़ी जम्हूरियत की कोई ताकत नहीं है। इन दोनों का साथ आना मुशर्रफ के लिए खतरेकी घंटी थी। इसीलिए पहले नवाज शरीफ पर जब हमला हुआ और वह बाल बाल बच गए, फिर कुछ ही देर बाद बेनजीर पर हमला हुआ तब लोगों की उंगलियां सीधे मुशर्रफ पर उठ गईं। अगर नवाज भी मारे जाते तो पाकिस्तान में लोकतंत्र के लिए आवाज उठानेवाला कोई दमदार शख्स कई सालों तक नजर नहीं आता। पंजाब के लुधियाना में मुसलमानों ने तो बेनजीर की हत्या की खबर आते ही मुशर्रफ को दोषी ठहरा दिया और पुतला फूंकने की घोषणा कर दी। अब मुशर्रफ अपने दामन पर लगे इस दाग को धोने में शायद कभी सफल नहीं हो पाएं। घटना भी उन्हीं केशहर रावलपिंडी में हुई। सुरक्षा इंतजाम का जिम्मा भी उन्हीं की सरकार के उपर था। पाकिस्तान में लोकतंत्र से सबसे ज्यादा डर भी उन्हीं को दिख रहा था। इसलिए दुनिया भर के सवालों का जवाब भी उन्हीं को देना होगा।
दुनिया के सवालों से तो बाद में निपटना होगा। पहले पाकिस्तान की जनता ही जवाब मांगेगी। अभी की स्थिति में वहां गृहयुद्ध के हालात हो जाएंगे। बेनजीर की हत्या की खबर फैलते ही जिस तरह से लोग सड़कोंं पर उतरने लगे और आगजनी की खबरें सामने आ रही हैं। इससे भी संकेत साफ हैं। इस हालात का सबसे ज्यादा फायदा आतंकी संगठन उठाएंगे। पाकिस्तान में अराजकता की स्थिति उनके लिए सर्वाधिक मुफीद होगी। वे अपना दायरा अफगानिस्तान से सटे कबायली इलाकों से बढ़ाकर मध्य पाकिस्तान तक फैलाने की कोशिश करेंगे और यह पाकिस्तान की जम्हूरियत के लिए खतरनाक साबित होगी ही मुशर्रफ के लिए खतरनाक स्थिति होगी। योंकि एक तरफ उन्हंे नापसंद करने वाले आतंकी संगठन अपनी ताकत बढ़ाकर उन्हें चुनौती देंगे। दूसरी तरफ आतंकियों से निपटने के नाम पर अमेरिका का हस्तक्षेप बढ़ेगा। अगर अलकायदा जैसे संगठन ने इस घटना को अंजाम दिया है तो फिर नवाज के बाद मुशर्रफ ही उसका अगला निशाना होंगे। पहले अमेरिकापरस्ती की नीति मुशर्रफ पर हमले का सबब बन चुकी है।
बेनजीर की ही तर्ज पर भारत में भी घटनाएं हो चुकी हैं। भारत के लोकप्रिय नेता राजीव गांधी भी चुनाव प्रचार के दौरान ऐसी ही ताकतों का निशाना बनकर जान गंवा चुके हैं। इसलिए भारत को भी सतर्क रहना होगा। योंकि कोई शासक बने सीधे तौर पर भारत-पाक के रिश्ते पर कोई खास असर नहीं होगा लेकिन जब पाकिस्तान में कट्टरपंथियोंं का वर्चस्व बढ़ेगा तो भारत में आतंकवाद को शह मिलेगी। पाकिस्तान के कट्टरपंथी वैसे भी बेनजीर और नवाज के भारत समर्थक बयानों पर कड़ी प्रतिक्रिया देते रहे हैं। दोनों देशों के बीच कारोबारी रिश्ते भी इस बीच ठीक ठाक हो गए थे। वाघा बार्डर और अटारी के जरिए आयात और निर्यात का सिलसिला बढ़ा था। चीन, ईरान और अफगानिस्तान का माल भी इसी रास्ते आने लगा था। ऐसी बड़ी घटना से इस रिश्ते को भी झटका लगेगा।
रही बात पाक में चुनाव प्रक्रिया की तो बेनजीर की मौत के बाद या इसे जारी रखा जाएगा ? यह सवाल है। इस घटना के बाद या बेनजीर के समर्थक और नवाज शरीफ अपनी आवाज जम्हूरियत के हक में पूरी ताकत से बुलंद कर पाएंगे। या इमरान खान जैसी शख्सियत इस स्थिति में कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभा पाएंगी। अगर चुनाव करा भी लिए गए तो उसके बाद बनी सरकार भय और आतंक के इस कोहरे से पाकिस्तान की जम्हूरियत को बाहर निकाल पाएगी। इन सवालोंं पर पाकिस्तान ही नहीं पूरी दुनिया के लोगों की निगाहें टिकी रहेंगी।

रविवार, 23 दिसंबर 2007

पंजाब गुजरात भी नहीं


यह पंजाब है। गुरुओं की धरती । उन गुरुओं की िजन्होंने दूसरों की जान बचाने के िलए अपने शीश की कुर्बानी दी थी । यहां के रग-रग में वीरता और त्याग का इितहास भरा है । यहीं की धरती भगत िसंह और उधम िसंह जैसे वीरों को पैदा करती है । लेिकन आज िस्थित बदल गई है। आज यहां सच को सच कहने का कोई साहस नहीं िदखा पा रहा है। माने हुए आतंिकयों को सरेआम शहीद का दर्जा देकर मिहमामंिडत िकया गया और सरकार चुप है। वही सरकार जो संिवधान के प्रित आस्था और कर्तव्य की शपथ लेती है । सरकार की बैसाखी बने लोग भी चुप हैं। मामला पंजाब में आतंकवाद का नेतृत्व करनेवाले जनरैल िसंह िभंडरावाले की तसवीर का है । िभंडरावाले के उपर िसख युवकों की भावनाएं भडका कर उन्हें सैंकडों िनर्दोषों की हत्याओं के िलए प्रेिरत करने का आरोप है। िभंडरावाले पर पिवत्र स्वर्ण मंिदर के आतंकी कार्यों के िलए इस्तेमाल करने का आरोप भी है। उसे आपरेशन ब्लू स्टार के दौरान स्वर्ण मंिदर पिरसर में ही मारा गया था । आतंकवाद पीिडत सैंकडो पिरवार उसे आतंकवाद के दौर का सबसे बड़ा खलनायक मानते हैं परंतु िशरोमिण गुरुद्वाारा प्रबंधक कमेटी उसे आतंकी नहीं शहीद मानती है। और इसी आधार पर उसकी तस्वीर स्वर्ण मंिदर पिरसर में िस्थत अजायब घर में लगा दी।
उस अजायब घर में िभंडरावाले ही नहीं इंिदरा गांधी और बेअंत िसंह और जनरल वैद्य के हत्या रे की तस्वीर भी लगी हुई है । ये तसवीरें खलनायक के तौर पर लगी होती तो कोई बात नहीं थी। िचंता की बात है िक इन आतंिकयों को िसख कौम के नायक और शहीद के तौर पर प्रस्तुत िकया गया । समाचार पत्रों में खबरें आईं। लेिकन मुख्यमंत्री प्रकाश िसंह बादल चुप रहे। आतंकवाद के िखलाफ बढ़चड़ कर बयानदेनेवाली भाजपा के नेता भी कहने लगे िक यह एसजीपीसी का आंतिरक मामला है। वे अपने संस्थान में िकसी का भी फोटो लगा सकते हैं। लेिकन क्या यह िसर्फ िवचार धारा और िनजता का मामला है । कांग्रेस इसका खुलकर िवरोध कर रही है क्योंिक इन आतंिकयों के सबसे ज्यादा िशकार उसी के नेता हुए थे। लेिकन भाजपा की चुप्पी िचंताजनक है? क्योंिक उसका वोटबैंक पंजाब के िहंदू हैं और वही सबसे ज्यादा इन आतंिकयों का िशकार बने थे। जािहर है िक इस िवरोध की िस्थित में उसे अकाली दल से अलग होने की िस्थित में आना पड़ता और उसके नेताओं को सत्ता सुख से वंिचत होना पड़ता । अकाली दल के नेताओं का रुख तो अितवाद की सीमा को लांघ गया। उसके विरष्ठ नेता बयान देकर उन लोगो को सीमा में रहने की नसीहत दे रहे थे िजन्होंने िभंडरावाले को आतंकी कहने की जुर्रत की।
क्या यह कदम उन लोगों के सीने में िफर से टीस नहीं भरती होगी िजनके अपने आतंकवािदयों के िशकार बने थे। यह सच है िक कुछ लोग िभंडरावाले और दूसरे आतंिकयों को नायक मानते हैं। उनका मानना है िक इन्होंने िसख कौम के िलए कुरबानी दी। कई िसखों से बातचीत में इसका अहसास भी होता है । इन्ही के समरथन के िलए एेसे कदम उठाए गए। लेिकन एेसे लोगों की संख्या िकतनी है? शायद बहुत कम । सबसे बड़ा सवाल यह है िक क्या सआम लोग भी इन आतंिकयों को शहीद मानेंगे। जािहर है िक कभी नहीं ।
दरअसल गिणत लोकसभा चुनाव का है। अकाली दल मालवा में मजबूत हो रहे कट्टरपंिथयों को अपनी ओर कर डेरा के असर को काटना चाहता है। उसे उम्मीद है िक िजतना िभंडरावाले की तस्वीर लगाने का िवरोध होगा उतना ही कट्टरपंथी िसखों के वोटों का ध्रुवीकरण उसकी ओर होगा जो िवधानसभा चुनाव में कांग्रेस की ओर चले गए थे। भाजपा इस मुद्दे पर चुप्पी साधकर अपनी राजनीितक उम्मीद को बनाये रखना चाहती है परंतु शायद पिरणाम एेसे न हों । क्योंिक जनता सच जानती है और पंजाब गुजरात भी नहीं है।

रविवार, 16 दिसंबर 2007

ब्लागियाने का मजा

ब्लाग की दुनिया भी अजीब हैतमाम उतार-चढ़ाव, बंधनों के बावजूद इसके रास्ते इतने सपाट दिखते हैं कि मीलों दूर बैठा आदमी अपने असली चेहरे के साथ साफ साफ दिख ही जाता हैउतार चढ़ाव इसलिए क्योकि कुछ साथी तकनीकी लाभ लेते हुए अपनी पहचान को छिपाते हुए बेबाक बात रखते हैंशायद व्यावसायिक, सामाजिक मजबूरियां उन्हें अपनी पहचान छिपाने के लिए विवश कर देती हैंइसके बावजूद खास बात यह है कि व्यक्ति ब्लाग पर अपनी बात, अपने विचार जिस बेबाकी से रखता है उससे उसका सही चेहरा ही सामने आता हैतकनीकी नकाब भी किसी ब्लागिए को बहुत देर तक छिपाकर नहीं रख सकतीब्लागखोरी करते-करते मुझे भी कई पुराने दूर बैठे, प्रकट और छद्म नामों से विचरण करते पुराने परिचितों से टकराने का सौभाग्य मिलापरिचितों से मिलकर, उनके बारे में जानकर, उनकी खैर खबर पाकर अच्छा लगता हैमुझे भी लगाआपको भी अच्छा लगता होगाकुछ लोगों के लिए पुनर्मुलाकात कटु हो सकती है, बशर्ते पुराना अनुभव कड़वा रहा होवैसे ब्लागखोरी करते हुए आपको कोई ऐसा अनुभव हुआ हो बेबाक पर सभी से शेयर कर सकते हैंक्या पता ब्लाग की इन गलियों में फिर कोई परिचय की खिड़की खुल जाए

भाजपा के नए खेवनहार

मंगलवार, 11 दिसंबर 2007

गुजरात चुनाव-पहले ही हार की मुद्रा में कांग्रेस

लगता है कि कांग्रेस मान चुकी है कि गुजरात के महाभारत में मोदी की जीत होगी। पहले चरण के मतदान के दिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बयान से तो ऐसा ही लगता है। मनमोहन सिंह ने कहा कि भाजपा लालकृष्ण आडवाणी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार इसलिए घोषित कर रही है क्योंकि उसके नेताओं को डर है कि मोदी इस पर दावा पेश करेंगे। मनमोहन सिंह के इस बयान में ही मोदी की जीत के संकेत छिपे हैं। लेकिन कैसे? आएं इसे समझने की कोशिश करते हैं।
यह सभी जानते हैं कि गुजरात चुनाव मोदी के लिए राजनीतिक तौर पर जीवन मरण का प्रश्न बन चुका है। हारने पर भाजपा के विरोधी ही उन्हें रसातल में भेजने को तैयार होंगे। जीतने पर कम से कम गुजरात में उनका कद पार्टी से बड़ा हो जाएगा और तभी वह प्रधानमंत्री जैसे शीर्ष पद के लिए दावा कर सकेंगे। मनमोहन अगर कह रहे हैं कि मोदी ऐसा करनेवाले थे और इसे रोकने के लिए आडवाणी के नाम की घोषणा की गई है तो इसका मतलब है कि वे मान रहे हैं कि मोदी सत्ता में वापस लौट रहे हैं। तो फिर क्या कांग्रेस गुजरात में हारी हुई लड़ाई लड़ रही है? जाहिर है कि जवाब हां होगा। कम से कम कांग्रेस नेतृत्व तो कम से कम यही मान रहा है। यही वजह है कि नरेंद्र मोदी पर मौत का सौदागर कहकर हमला बोलनेवाली सोनिया गांधी चुनाव आयोग को भेजे जवाब में इससे पलट जाती हैं। अगर उन्हें जीत की उम्मीद होती तो कांग्रेस के नेता मतदान से पहले या तो चुनाव आयोग को जवाब नहीं भेजते या फिर अपनी बात पर अड़े रहते। लेकिन केंद्रीय खुफिया एजेंसियों की रिपोर्ट ने कांग्रेस नेतृत्व के समक्ष तसवीर साफ कर दी। अगर गुजरात में मोदी हार भी जाते हैं तो यह वैसा ही होगा जैसा कांग्रेस का केंद्र में बिना उम्मीद के सत्ता हाथ लगना। इसके पीछे बड़ी वजह कांग्रेस की कमजोर रणनीति भी रही है। गुजरात में जिस तरह से भाजपा ने नरेंद्र मोदी के कद को विस्तारित कर जनता के सामने रखने में कोई व्यवधान नहीं डाला उसका असर कांग्रेस कार्यकर्ताओं पर भी पड़ा। वे मोदी के कद के सामने कांग्रेस की ओर से किसी नेता को लोगों के सामने नहीं रख पाए। शंकर सिंह वाघेला या अन्य दूसरे गुजराती कांग्रेसी नेताओं में किसी को आगे करने की बजाय कांग्रेस के रणनीतिकार भाजपा के बागियों में अपनी पार्टी के लिए सत्ता में लौटने का अवसर तलाशते रहे। यही गुजरात में कांग्रेस की कमजोर कड़ी साबित हो रही है।

सोमवार, 10 दिसंबर 2007

कहीं कुछ ज्यादा तो नहीं टूट रहा

कहीं कुछ ज्यादा तो नहीं टूट रहा
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यह इक्कीसवीं सदी है
इसलिए बदल गई हैं परिभाषाएं
बदल गए हैं अर्थ
सत्ता के भी
और संस्कार के भी।

वे मोदी हैं इसलिए
हत्या पर गर्व करते हैं
जो उन्हें पराजित करना चाहते हैं
वे भी कम नहीं
बार बार कुरेदते हैं उन जख्मों को
जिन्हें भर जाना चाहिए था
काफी पहले ही।

वे आधुनिक हैं क्योंकि
शादी से पहले संभोग करते हैं
तोड़ते हैं कुछ वर्जनाएं
और मर्यादा की पतली डोरी भी
क्योंकि कुछ तोड़ना ही है
उनकी मार्डनिटी का प्रतीक
चाहे टूटती हों उन्हें अब तक
छाया देनेवाली पेड़ों की
उम्मीद भरी शाखाएं
शायद नहीं समझ पा रहे हैं
वर्जना और मर्यादा का फर्क।
-मृत्युंजय कुमार

पेट

पेट ही नरक है
पेट ही स्वर्ग है

सड़क के किनारे
लालबत्ती इलाके में
छज्जे पर खड़ी होकर
लगाती आवाजें
करती अजीब इशारे
इस उम्मीद में
कि ये इशारा जगा देगा
सामने गुजर रहे लोगों में
एक भेड़िया
और भर जाएगी पेट।

वह लंबी कार से उतरती है
डकार लेती है
पिज्जा, बर्गर और पनीर के
मिले-जुले स्वाद के साथ
उसे हरियाली अच्छी लगती है
हवा भी सुहानी
दुख लगता है अर्थहीन
और जिंदगी का हर
मोड़ नजर आता है हसीन

पेट की धाह से
दूर भागते हैं देवता भी
झुलस जाती है
संवेदनाएं
मर जाती हैं इच्छाएं
जीने की
आसमान छूने की।

-मृत्युंजय कुमार